Deoria News: देवरिया के सुनील शर्मा की मेहनत और हुनर की क्या है प्रेरणादायक कहानी, जाने विस्तार से?

Deoria News: देवरिया, उत्तर प्रदेश के बैकुंठपुर गांव में सुबह की शुरुआत एक खास आवाज से होती है—हथौड़े की ठन-ठन। यह आवाज है 35 वर्षीय सुनील शर्मा की, जो एक साधारण लोहार हैं, लेकिन उनकी जिंदगी की कहानी असाधारण है। सुनील ने पसीने की आग में तपकर और मेहनत के बल पर न सिर्फ अपनी जिंदगी बदली, बल्कि अपने गांव में एक मिसाल भी कायम की। उनकी यह कहानी हर उस शख्स के लिए प्रेरणा है, जो मुश्किल हालात में भी हार नहीं मानता।

पारंपरिक हुनर से शुरूआत

सुनील का जन्म एक लोहार परिवार में हुआ। उनके पिता सालों से गांव में लोहे के औजार बनाते थे—हल, फावड़ा, हंसिया और किसानों के लिए जरूरी हर सामान। बचपन से ही सुनील ने अपने पिता को कोयले की भट्टी में लोहा तपाते और उसे औजारों का आकार देते देखा। लेकिन समय के साथ गांव की जिंदगी बदलने लगी। गांव के ज्यादातर युवा बेहतर कमाई की तलाश में शहरों की ओर पलायन करने लगे। सुनील भी इस भीड़ का हिस्सा बन गए।

शहर की चकाचौंध और संघर्ष

सुनील पंजाब और गुजरात जैसे राज्यों में मजदूरी करने गए। वहां उन्होंने ईंट-गारे से लेकर फैक्ट्रियों में काम किया। दिन-रात मेहनत के बावजूद उनकी कमाई 15 हजार रुपये महीने से ज्यादा न हो सकी। यह पैसा किराए, खाने और रोजमर्रा के खर्चों में ही खत्म हो जाता। शहर की जिंदगी में न तो सुकून था, न ही बचत। सुनील को लगने लगा कि यह रास्ता उनकी जिंदगी को बेहतर नहीं बना सकता।

जड़ों की ओर वापसी

कई सालों की मेहनत और निराशा के बाद सुनील ने एक बड़ा फैसला लिया। वे अपने गांव बैकुंठपुर लौट आए। वहां उनके पिता की पुरानी लोहार दुकान बंद पड़ी थी। पिता की बूढ़ी आंखों में उम्मीद और दुकान की खामोशी ने सुनील को एक नया रास्ता दिखाया। उन्होंने फैसला किया कि वे अपने परिवार के पारंपरिक हुनर को फिर से जिंदा करेंगे।
सुनील ने अपनी दुकान को दोबारा शुरू किया। उनके पास न तो सरकारी मदद थी, न ही आधुनिक मशीनें। फिर भी, उन्होंने पुराने औजारों और पारंपरिक तकनीकों के सहारे काम शुरू किया। आज भी वे बिजली से चलने वाली मशीनों के बजाय हाथ से चलने वाले औजारों का इस्तेमाल करते हैं। कोयले की भट्टी में लोहा तपाकर और हथौड़े से उसे आकार देकर सुनील औजार बनाते हैं।

सरकारी योजनाओं का अभाव

सुनील की राह आसान नहीं थी। उन्हें सरकार की ओर से कोई मदद नहीं मिली। न तो कोई सब्सिडी, न प्रशिक्षण, न ही कोई योजना उनके दरवाजे तक पहुंची। सुनील का कहना है कि सरकार कागजों पर तो कई योजनाएं चलाती है, लेकिन हकीकत में छोटे कारीगरों तक उसका लाभ नहीं पहुंचता। इसके बावजूद सुनील ने हार नहीं मानी। उन्होंने अपने दम पर मेहनत की और अपनी दुकान को एक नई पहचान दी।

इलाके में बनी पहचान

आज सुनील की मेहनत रंग ला रही है। बैकुंठपुर और आसपास के 30 किलोमीटर के इलाके में उनकी दुकान मशहूर हो चुकी है। किसान उनके बनाए औजारों की तारीफ करते नहीं थकते। सुनील के औजार न सिर्फ मजबूत होते हैं, बल्कि लंबे समय तक चलते भी हैं। लोग दूर-दूर से उनके पास औजार बनवाने और मरम्मत कराने आते हैं।
सुनील अब रोजाना 1000 से 1500 रुपये की कमाई करते हैं। इस कमाई में से वे अच्छी-खासी बचत भी कर लेते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि अब उन्हें किराए या शहर की तंगी की चिंता नहीं सताती। अपने परिवार के साथ गांव में रहकर वे आत्मसम्मान और सुकून की जिंदगी जी रहे हैं।

प्रेरणा का संदेश

सुनील शर्मा की कहानी हमें सिखाती है कि जिंदगी में तरक्की के लिए दूर जाने की जरूरत नहीं है। कई बार अपनी जड़ों से जुड़कर, अपने हुनर को अपनाकर ही सच्ची सफलता मिलती है। सुनील ने न सिर्फ अपनी जिंदगी बदली, बल्कि अपने गांव के लिए भी एक मिसाल कायम की। उनकी कहानी हर उस इंसान को हौसला देती है, जो मुश्किल हालात में भी कुछ कर गुजरने का जज्बा रखता है।
सुनील की तरह ही अगर हम अपने हुनर और मेहनत पर भरोसा करें, तो कोई भी सपना असंभव नहीं है। यह कहानी हमें याद दिलाती है कि मेहनत, आत्मविश्वास और जड़ों से जुड़ाव ही सच्ची तरक्की का रास्ता है।

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